बेखबर दबी दबी सी ख्वाहिशें...
क्या गुनाह कर दिया, अगर जग पड़ी
चल दी अगर खुशियों की राह पर ये ज़िन्दगी,
क्यूँ नहीं हुई बर्दाश्त, ज़माने से ये आज़ादी,
गर मुस्कुरा गए ये लब, देख कर अल्हड़ से ख्वाब,
क्यूँ निगाहों पर ये दुनिया, पहरा लगाने लगी,
दे दिया खुदा ने हक गर जीने का सभी को,
क्यूँ इंसानी हुकूमत इस बात पर मचल गयी,
पूछ लिया मैंने जब डाल के निगाहों में निगाहें, ये सवाल,
क्यूँ तुम्हारी मगरूर निगाहें निशब्द हो के झुक गयी,
बेखबर दबी दबी सी ख्वाहिशें...
क्या गुनाह कर दिया, अगर जग पड़ी
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